Thursday, December 15, 2011


बुझ जाने दो आज दिये
अँधेरों को पास आने दो 
एक बार बस साँसों में
इस सूनेपन को समाने दो 

चाँद का चेहरा बादलों में
अब छुप जाए तो अच्छा
आहों की लड़ी सन्नाटे में
घुल जाए तो अच्छा
बंद कर के पलकों को 
सपनों में न खोना 
ये रात आज गहरा कर 
थम जाए तो अच्छा
कब तक उजालों में हम तुम
झूठे हौसले तापें 
सच आज आँखों के कोनों में
जम जाए तो अच्छा 

फूँक लेने दो आज ये लौ 
पी लें हम ये रात 
एक आख़िरी बार आओ 
जी लें ये जज़्बात 



Friday, November 25, 2011

रेगिस्तान


रेगिस्तान सा है दिल मेरा
दिन भर तपता है 
एड़ियों की तरह 
सुनहरी रेत के सुनहरे दानों में दबे 
भूले हुए सपनों की तलाश में
प्यास में 
पर जब उतर आती है रात इसके आँगन में 
थम जाता है 
शीतल शिथिल चाँदनी की तरह 
जम जाता है 
जैसे कभी किसी बेरहम बेपरवाह सूरज को
जानता ही नहीं था 

Thursday, November 24, 2011

तलाश


ख़ुदा ढूँढने निकले थे
खुद से मुलाक़ात हो गई
तलाश वहीं पर कुछ
मुक़म्मल सी लगने लगी
मोमबत्ती की रोशनी
जब दिल के कोनों पर पड़ी
एक सरहद सी थी जो दो परछाइओं के बीच
पिघलने सी लगी
मेरे उजालों ने मेरे अंधेरों को
अपनाना सीख लिया 

Saturday, November 19, 2011

कल रात

चाँद को देखा था कल रात मैंने
कुछ भीगा भीगा था वो भी
शाम की बारिश से 
मेरे ख़्वाबों की तरह
हथेलियों को जोड़कर
पी ली थीं मैंने भी
चाँदनी की चाशनी में डूबी
कुछ बूँदें
तुम थे कहीं उस एहसास में 
जिसने हलक को भिगोया तो था 
पर प्यास को बुझा न पाया था 
कल रात चाँद भी
भीगा भीगा सा
प्यासा प्यासा सा था
शायद तुमने भी देखा होगा उसको

तुम्हारे शहर में भी तो अक्सर
बारिशों वाली रातें हुआ करती थीं 

Thursday, October 13, 2011

वो धूप जो सेंका करते थे हम 
उसका एक टुकड़ा पड़ा है कहीं 
मेरी संदूक में
चूड़ियों के ढेर के नीचे 

मेज़ पर पड़ी सिन्दूर की डिबिया के पास 
कहीं कागज़ के एक टुकड़े पर 
हमारे नाम लिखे हैं 
चाँदनी में देखना, चमकते हैं वो 

सीढ़ियों के नीचे आँगन में जहां 
मिर्ची सुखाते हैं ना
वहीं चारपाई के पाए में मैंने 
बाँध रखा है हमारी मन्नत का धागा 

चूल्हे के पास कोयले के ढेर में 
कुछ अकेली सिसकियाँ दफनाई हैं 
और पीछे बगीचे में गुलाब वाले गमले के नीचे 
हमारी हँसी की किलकारियाँ सजाई हैं 

मुट्ठी में भी छुपा रक्खा है 
मूँदे हुए ख़्वाबों का एक पुलिंदा 
श्मशान से लौटते वक़्त याद से, निकाल कर ले जाना घर
और डाल देना आँगन में तुलसी की छाँव में कहीं 

Monday, October 10, 2011

कागज़ की कश्ती

कागज़ की कश्ती सी जिंदगी
बारिशों में जन्मी
बारिशों में खो जानी है 
गली गली घूमकर फिर भी 
बारिशों में नहा रही देखो 

Saturday, October 8, 2011

कभी कभी मेरे दिल में

कभी कभी मेरे दिल में ख़याल आता है 
कि ये ज़मीन ये तारे ये झिलमिल बारात उनकी 
ये चाँद का गहना जो रात ने पहना है 
ये हवाओं की अठखेलियाँ जो लुभाती है दिल 
ये रातों को छतों पर गुज़ारे हुए पल 
ये सर्दियों की धूप में मखमल सी नींद 
ये चूल्हे से उठता हुआ सौंधा सा धुआँ
ये सरसों के सुनहरे खेतों का दामन 
ये दोपहरों की लुका छुपी में बीता बचपन 
ये मासूम बचपन के जैसी ओस की बूँदें 
ये खामोश मोहब्बत भरी दीवानी ग़ज़लें 
ये सुबह का उभरता हुआ नारंगी सूरज 
ये खिड़की पे बिखरते हुए धूप के टुकड़े
ये रेत में डूबे हुए पैरों के अंगूठे
ये तस्वीरों पर पड़े वक़्त के धब्बे 
ये समंदरों को चखना नज्मों में 
ये हाथों का मिलना अनजाने में 
ये सिहरन जो उठती है उनके आने से
ये तलाश बंजारे से सवाली मन की 

कभी कभी मेरे दिल में ख़याल आता है 
ये साँसों में घुलती हुई पल पल ज़िंदगी 
और इससे हुई मुहब्बत के हमारे किस्से 
क्या जी पायेंगे हमारे बाद भी...पल दो पल?

Thursday, October 6, 2011

दिल में आता है लिखूं

आज दिल में आता है लिखूं
तब तक जब तक सूख न जाएँ
स्याही या फिर आंसूं
या मिल न जाए जवाब
उस सवाल का जो दिल ने
खुद से पूछा है डर डर के
आज दिल में आता है लिखूं
जब तक खामोशियाँ
उतर न जाएँ कागज़ पर
हैरान से ख़्वाबों को जब तक
हो न जाए सच का यकीन
तब तक लिखूं जब तक
धुंआ न हो जाए रात
और एक रात के साथ साथ
धुंआ हो जाएँ उम्र भर के जज़्बात
दिल में आता है लिखूं
के जब तक रुक न जाए हाथ
जब तक थम न जाए ज़िंदगी
छूट न जाए सांस

कल, आज और कल


A very old write...a little flawed..a little immature...

चाँदनी थी धवल, शीतल थी वात 
शिथिल से उस क्षण में मन कर रहा था संवाद 
धूल मिट्टी से भरी पगडंडियाँ  अब नहीं हैं 
भीगे खस से ढंकी खिड़कियाँ अब नहीं हैं 
गाँव तो वही है, बस वो बचपन कहीं लुप्त है
उन्मुक्त ठहाकों में जो बीता, सुहाना कल कहीं लुप्त है

आज स्वप्न सारे मेरे सत्य बनकर हैं खड़े 
सफलता के आभूषण पर समृद्धि के हैं रत्न जड़े 
एक एक करके मैंने 'संभव' को परिभाषित किया 
नित्य बढ़ती हुई गति से ठहराव को पराजित किया 
सागर की गहराई को, अम्बर के विस्तार को 
सूरज के प्रकाश और मेघ की हुंकार को 
साध कर यंत्रों से भेद मैंने जाने हैं 
लाभ और विलास के मायने पहचाने हैं 
अकारण ही नहीं इतना दंभ है ये मेरा
त्याग और परिश्रम का स्तम्भ है ये मेरा 

पर क्या हिल रहा है ये स्तम्भ 
परिवर्त्तन की आंधी में?
क्या नीव पद गयी थी इसकी
बीते कल की समाधि में?
खुशियों के पीछे भागा था, सपनों की होड़ में 
क्या समय था मुझसे आगे, उस निरंतर दौड़ में?
आज भी क्यूँ ख़ुशी, दूर होती है प्रतीत
क्यूँ सुनहरा लगता है मुझको, वो अविकसित अतीत 
गाँव की सड़कों के संग बदल गए हैं वो विचार 
जो बाँधते से मन से मन को, संबंध वो निर्विकार 
चैन और विश्राम के पल हो गए हैं गौण क्यों 
विवेक के विचलित से स्वर हो रहे हैं मौन क्यों 
भौतिकता के रास्ते में, कल वो दिवस न आ जाए 
मानव की भावनाएं, यन्त्र -चालित हो जाएँ 
लाभ हानि की तुला में, नप न जाए सत्य भी 
उन्नति की मृग तृष्णा में, खो न जाएँ तथ्य भी 

एक भोर तो आयेगी इस रात्रि के भी बाद
जब सुन सकेगा मानव अपने मन का ये संवाद 
कल के पीछे भागता वो कुछ पल को ठहर जायेगा 
उस कुछ पलों के आज में जीवन का सार भर जायेगा 

Tuesday, October 4, 2011

इंतज़ार

आज सवेरे से ही अनमनी सी थी वो 
कभी खिड़की पर जाती 
कभी वापस आ कर 
मेज़ पर पड़ी किताब को 
एक बार और पोंछती थी पल्लू से 
कभी आईने के आर पार ढूंढती थी कुछ 
उस पार और इस पार के बीच 
जैसे अटक गया हो वजूद का एक टुकड़ा 
घड़ी की टिक टिक गूंजती है कमरे में 
पर काटें जैसे उलझ गए हैं आपस में 
दो पड़ोसियों के उलझे हुए कल और आज की तरह 
वक़्त बढ़ता ही नहीं है 
दिन ढलता ही नहीं है 
जब से सुना है कि आज की शाम 
सरहद पार से पहली गाडी आने वाली है 

Saturday, October 1, 2011

वो नज़्म

ज़माने पहले एक नज़्म ने
पंख पसारे थे
हिचकिचाते हुए
मेरी मेज़ पर रखे कागज़ के पन्ने से
सौंधी सी महकी थी
धुंआ बन के हलके से
छाई थी फिज़ाओं में
तब वक़्त कुछ और था
तुम होते थे तसव्वुर में तब
उसी रोज़ सुबह तुमने
आँगन में सूखते गेहूँ की चादर पर
उजली सी धूप में
कुछ गेहूँ उठा कर मेरी जुल्फों में भरे थे
और सुनहरे दानों में
हम दोनों
खिलखिलाते रहे थे देर तक
वो हँसी आज भी सहेज रखी है
उस नन्ही सी नज़्म ने
उस सुबह के सूरज को
आज भी तापती है वो
घेरे से बनाती है चारों तरफ उस याद के
हमारे हाथों की लकीरों से
उस नज़्म से , उस याद से
आज भी मोहब्बत है मुझे
तुमसे नहीं तो क्या 

Wednesday, September 28, 2011

कल रात


कल रात मेरे हाथों में 
हाथ था उनका
चाँद का पहरा था 
मद्धम सी हवाएं थीं
कुछ नज्में भी साथ थीं
आधी नींद में, अलसाई,
हमारी गोद में बिखरी पड़ी थीं 
किसी ने चूमा था उनके माथे को जैसे 
सुर्ख सी, शरमाई हुई सी 
चाँदनी में सिमटी पड़ी थीं 
गुनगुनाती थीं धीमे से 
गीत रेगिस्तानों के 

रेट में डूबा कर पैर 
चाँदनी में लिपट कर 
कुछ गुनगुनाया था 
हमारा रिश्ता भी 

कल रात मेरे शहर में 
अरसे के बाद 
बारिशें हुई थीं 

Sunday, September 25, 2011

..


मुट्ठी  भर  आकाश  में  जैसे 
पंखों  का  विस्तार 
वैसे  तेरे  ह्रदय  में  चाहूँ 
फैले मेरा प्यार 

Thursday, September 1, 2011

आधी रात

आधी ढली सी रात है
सुबह है आधी - आधी
उबलता सा एक ख्वाब है
आधा उफान, आधा ठहराव
थोड़ा सा सर्द है
थोडा सा गर्म भी
तैरता है पलकों पे
तरल है, सरल है,
यथार्थ है, और भ्रम भी

आधा उजाला अनचाहा
आधी बिन-माँगी रात
आधे भूले से रास्तों में
आधा - आधा प्रयास
धूल धूल अँधेरा
परत-दर-परत जम रहा
हौसलों में क्या बाकी है
आधी दबी सी, आधी मचलती
कोई आँधी?

Friday, July 15, 2011

नए दाँत

जबसे  आपने  नए  दाँत  लगाये  हैं
दिल  में  कुछ  खटकता  है 
डर  सा , लगाव  सा 
जब  सुनती  हूँ  किस्से 
आपके  बचपन  के उस  साल  के  
जब  आप  6 साल  के  थे 
और  मज़े  लेते  थे  इंक़लाब  के  नारों  में 
सड़क  पर  मिली  एक  अकेली  गोली  में 
वन्दे  मातरम  के  बेसुरे , तोतले  गान  में 
कहीं  मेरा  मन  अटक  जाता  है 
आपके  इन  नए  दाँतों  के  बीच 
जिन्होंने  बदल  कर  रख  दिया  है 
आपके  चेहरे  को 
थोड़े  ऊंचे  हैं  वो 
और  आपकी  उन्मुक्त  हँसी  को 
कुछ  बचकाना  सा  बना  देते  हैं 
और  थोड़ी  और  मासूमियत  डाल  देते  हैं 
आपके  बचपन  के  किस्सों  में 
पर  मैं  जानती  हूँ 
कि  आपके  दाँत  कभी  भी  
ऊँचे  नहीं  थे 
आकर्षक  थे ...आपकी  हँसी  की  तरह 
पर  अच्छे  हैं  ये  भी 
क्यूंकि  इनसे  उतना  दर्द  नहीं  होता 
जितना  आपके  पोपले  मुंह  को  देख  कर  होता  है 

एहसास

एक कोने मे बैठ कर आज
जब बीते हुए कल को सोचती हूँ
तो थम जाते हैं पल
उस लम्हे में जब
तुमने इज़हार किया था
प्यार का
प्यार - उस एहसास के इंतज़ार में
कब से बैठी थी मैं
शायद तब से जब पहली बार
मेरी गुड़िया ने एक गुड्डे को चुना था
या नानी की कहानी मे
महल मे बन्द राजकुमारी को
राजकुमार विदा कराने आया था
या शायद तब से जब सहेलियों की कहानियाँ
अनजानी और रोमांचक लगने लगी थीं
और मेरे कच्चे मन को
खुद की खोज में
एक और नज़रिये कि ज़रूरत थी
तुम्हारे इज़हार ने उस दिन कुछ हौसला दिया
मेरे अधपके मन को वजूद दिया
और मैं उसे प्यार समझ बैठी
वो दिल की धड़कन का बढ़ना
जो प्यार लगता था तब
आज बस आवेश में होता है
और वो सुकून जो तेरी झलक मे था
वही आज इस लम्बी सी मायूसी में है
न जाने कब उस एहसास ने
 आहिस्ते से दम तोड़ दिया
कि आज वो पल बेरंग तस्वीरों की तरह
मेरी रूह की जर्जर दीवारों पर
तिरछे से लटकते हैं
और हमारे रिश्ते की एकतरफ़ा राहों में
वापसी के नामुमकिन रास्ते तलाशते हैं

संध्या का दीपक

दादीमाँ,

जब शाम होती है मेरे शहर में 

गाड़ियों के शोर में घिरी मैं
क्षितिज पर डूबते सूरज में
तुम्हारी सूरत ढूंढ लेती हूँ
जब संध्या का दीपक लेकर तुम 
हर कमरे में घूमती थी 
और मुझे देख कर 
गाते हुए मुस्कुराती थी 
"सखी हे ...साँझ भयो नहीं आये मुरारी...
कहाँ अटके...गिरधारी..."
यशोदा का व्याकुल चित्त 
तुम्हारे हर पल विचलित मन जैसा 

यहाँ पर मेरा माँ
कोई इंतज़ार नहीं करता 

वात्सल्य

चाँदनी थी धवल, शीतल थी वात
कार्तिक की पूर्णिमा की पावन सी रात
पर नदी के तट पर था क्षण क्षण का संघर्ष
रेत पर लेटा था नन्हा सा, हाय, ममता का रूप वो वीभत्स
नन्ही सी हथेली में बंद था एक जीवन
क्षण क्षण रुक कर दम भरती थी धड़कन
क्रंदन कर सकने का भी कौतुक ना था शेष
कैसा था हाय यह माता का क्लेश!
पर सृष्टि के कारक की लीला अपरंपार
उसकी ही कल्पना का नाट्य तो है संसार
की देख लिया उसको वात्सल्य की उस मूरत ने
मर्म को भेद दिया निष्कलुश सी उस सूरत ने
वक्ष से लगा कर, सहेज कर ले आई वो घर
"ईश्वर के इस उपकार को सींचूँगी जीवन भर"
यदि जीवन की कथा होती है पूर्व लिखित
तो मुस्काया होगा विधाता, सुनकर उक्ति ये विदित
उर के आँगन में बसे उस तुलसी के पौधे को
निम्मो कहकर पुकारा गया
अश्रयों से सींचा और आशाओं से निखारा गया
माता की गोद, सखियों की टोली
क्रीड़ा की उमंग और तॉतली सी बोली
कब छूट गये पीछे भान ना हो पाया
काल चक्र की गति थी या अपने मन की ही माया
आँखों में अग्नि, हर कदम में दंभ
हृदय में तरंग और साँसों में हड़कंप
विश्व विजयी मुस्कान लिए
माँ का आशीष, अरमान लिए
महासागरों के पार, जो है अनोखा संसार
था उसकी प्रतीक्षा में, सजाए संभावनाओं का हार
"शीघ्र लौट कर आऊँगी, किस्से सभी सुनाऊंगी
माँ बोलो ना परदेस से, उपहार क्या क्या लाऊंगी"
अनगिनत स्वप्न थे, अपार था हर्ष
फिर भी माँ की मुस्कान का था अश्रुओं से संघर्ष
थरथराते होठों से बोल न निकलते थे
मन में पल पल ममता के टीले जो पिघलते थे
पीछे छोड़कर भाव विभोर सा संसार
निम्मो आ पहुँची सागरों के पार
अथाह आसमान की नीलिमा के तले
भविष्या के अनगिनत स्वप्न थे पले
समय के साथ स्पर्धा थी जैसे
दौड़ रहे थे निम्मो के दिन रात वैसे
कि एक दिन गाँव से पत्र वो आ गया
रोशन जीवन में अंधकार-सा छा गया
"चली गयी छुड़ाकर वात्सल्य का आँचल,
माँ क्या रुक ना पाई तू मेरे लिए पल-भर?"
आँखें जैसे खोई हों टूटे सपनों की समीक्षा में
निगल ना जाए रात इन्हें भोर की प्रतीक्षा में!
टूट कर ढह गया साहस का हर स्तंभ
अब कैसी अभिलाषा! कैसा कोई स्वप्न!
कोई नही जानता था उस हृदय का क्लेश
जब लौटे वो कदम वापस अपने देश
घर की चौखट पर था सन्नाटे का शोर
और मुख पर अंतिम दर्शन से वंचित नैनों का बिछोह
दीवारों की तस्वीरों में बीते हुए सुख का दुख
शब्दों से रहित था उस सुवाचिका का मुख
पर माता के प्रेम को स्वीकार ना थी हार
मेज़ पर रखा था एक अंतिम उपहार
उन परिचित हस्ताक्षरों मे लिखी पंक्तियों का चयन
दे गयीं थी वो एक नव निर्माण का वचन:
"जीवन में एक सितारा था,
माना वो बेहद प्यारा था,
वो टूट गया तो टूट गया,
अंबर के आनन को देखो,
कितने इसके तारे टूटे
कितने इसके प्यारे छूटे
पर बोलो टूटे तारों पर
कब अंबर शोक मनाता है"
(जो बीत गयी, सो बात गयी)

With all due regards to Harivanshrai Bachchan and the magic he created with his words!
बचपन का वो आश्वासन
शायद था अंधविश्वास
दोषी भी तो शायद
है अपनी ही आस


स्वार्थ लिप्त इस दुनिया मे 
भावनाओं का मोल नही 
गूंगापन मंज़ूर यहाँ है 
पर मन के सच्चे बोल नही


रह जाता है पंछी 
फड़फ़डा कर अपने परों को 
तोड़ने को आतुर वो 
लोहे कि उन छड़ों को

एक एक कर ढहता है 
धीरज का हर स्तम्भ
आहत मन का दंभ है
या है साँसों का हड़कंप


आंखें जैसे खोयी हों
टूटे सपनों की समीक्षा मे
निगल ना जाये रात इन्हें
भोर कि प्रतीक्षा मे

फूँक कर रखने हैं कदम

कहीं छूट ना जाये संयम 
और टूट ना जाएँ कहीँ
"सुसंस्कृत" समाज के
ये दृढतम नियम