Friday, July 15, 2011

नए दाँत

जबसे  आपने  नए  दाँत  लगाये  हैं
दिल  में  कुछ  खटकता  है 
डर  सा , लगाव  सा 
जब  सुनती  हूँ  किस्से 
आपके  बचपन  के उस  साल  के  
जब  आप  6 साल  के  थे 
और  मज़े  लेते  थे  इंक़लाब  के  नारों  में 
सड़क  पर  मिली  एक  अकेली  गोली  में 
वन्दे  मातरम  के  बेसुरे , तोतले  गान  में 
कहीं  मेरा  मन  अटक  जाता  है 
आपके  इन  नए  दाँतों  के  बीच 
जिन्होंने  बदल  कर  रख  दिया  है 
आपके  चेहरे  को 
थोड़े  ऊंचे  हैं  वो 
और  आपकी  उन्मुक्त  हँसी  को 
कुछ  बचकाना  सा  बना  देते  हैं 
और  थोड़ी  और  मासूमियत  डाल  देते  हैं 
आपके  बचपन  के  किस्सों  में 
पर  मैं  जानती  हूँ 
कि  आपके  दाँत  कभी  भी  
ऊँचे  नहीं  थे 
आकर्षक  थे ...आपकी  हँसी  की  तरह 
पर  अच्छे  हैं  ये  भी 
क्यूंकि  इनसे  उतना  दर्द  नहीं  होता 
जितना  आपके  पोपले  मुंह  को  देख  कर  होता  है 

एहसास

एक कोने मे बैठ कर आज
जब बीते हुए कल को सोचती हूँ
तो थम जाते हैं पल
उस लम्हे में जब
तुमने इज़हार किया था
प्यार का
प्यार - उस एहसास के इंतज़ार में
कब से बैठी थी मैं
शायद तब से जब पहली बार
मेरी गुड़िया ने एक गुड्डे को चुना था
या नानी की कहानी मे
महल मे बन्द राजकुमारी को
राजकुमार विदा कराने आया था
या शायद तब से जब सहेलियों की कहानियाँ
अनजानी और रोमांचक लगने लगी थीं
और मेरे कच्चे मन को
खुद की खोज में
एक और नज़रिये कि ज़रूरत थी
तुम्हारे इज़हार ने उस दिन कुछ हौसला दिया
मेरे अधपके मन को वजूद दिया
और मैं उसे प्यार समझ बैठी
वो दिल की धड़कन का बढ़ना
जो प्यार लगता था तब
आज बस आवेश में होता है
और वो सुकून जो तेरी झलक मे था
वही आज इस लम्बी सी मायूसी में है
न जाने कब उस एहसास ने
 आहिस्ते से दम तोड़ दिया
कि आज वो पल बेरंग तस्वीरों की तरह
मेरी रूह की जर्जर दीवारों पर
तिरछे से लटकते हैं
और हमारे रिश्ते की एकतरफ़ा राहों में
वापसी के नामुमकिन रास्ते तलाशते हैं

संध्या का दीपक

दादीमाँ,

जब शाम होती है मेरे शहर में 

गाड़ियों के शोर में घिरी मैं
क्षितिज पर डूबते सूरज में
तुम्हारी सूरत ढूंढ लेती हूँ
जब संध्या का दीपक लेकर तुम 
हर कमरे में घूमती थी 
और मुझे देख कर 
गाते हुए मुस्कुराती थी 
"सखी हे ...साँझ भयो नहीं आये मुरारी...
कहाँ अटके...गिरधारी..."
यशोदा का व्याकुल चित्त 
तुम्हारे हर पल विचलित मन जैसा 

यहाँ पर मेरा माँ
कोई इंतज़ार नहीं करता 

वात्सल्य

चाँदनी थी धवल, शीतल थी वात
कार्तिक की पूर्णिमा की पावन सी रात
पर नदी के तट पर था क्षण क्षण का संघर्ष
रेत पर लेटा था नन्हा सा, हाय, ममता का रूप वो वीभत्स
नन्ही सी हथेली में बंद था एक जीवन
क्षण क्षण रुक कर दम भरती थी धड़कन
क्रंदन कर सकने का भी कौतुक ना था शेष
कैसा था हाय यह माता का क्लेश!
पर सृष्टि के कारक की लीला अपरंपार
उसकी ही कल्पना का नाट्य तो है संसार
की देख लिया उसको वात्सल्य की उस मूरत ने
मर्म को भेद दिया निष्कलुश सी उस सूरत ने
वक्ष से लगा कर, सहेज कर ले आई वो घर
"ईश्वर के इस उपकार को सींचूँगी जीवन भर"
यदि जीवन की कथा होती है पूर्व लिखित
तो मुस्काया होगा विधाता, सुनकर उक्ति ये विदित
उर के आँगन में बसे उस तुलसी के पौधे को
निम्मो कहकर पुकारा गया
अश्रयों से सींचा और आशाओं से निखारा गया
माता की गोद, सखियों की टोली
क्रीड़ा की उमंग और तॉतली सी बोली
कब छूट गये पीछे भान ना हो पाया
काल चक्र की गति थी या अपने मन की ही माया
आँखों में अग्नि, हर कदम में दंभ
हृदय में तरंग और साँसों में हड़कंप
विश्व विजयी मुस्कान लिए
माँ का आशीष, अरमान लिए
महासागरों के पार, जो है अनोखा संसार
था उसकी प्रतीक्षा में, सजाए संभावनाओं का हार
"शीघ्र लौट कर आऊँगी, किस्से सभी सुनाऊंगी
माँ बोलो ना परदेस से, उपहार क्या क्या लाऊंगी"
अनगिनत स्वप्न थे, अपार था हर्ष
फिर भी माँ की मुस्कान का था अश्रुओं से संघर्ष
थरथराते होठों से बोल न निकलते थे
मन में पल पल ममता के टीले जो पिघलते थे
पीछे छोड़कर भाव विभोर सा संसार
निम्मो आ पहुँची सागरों के पार
अथाह आसमान की नीलिमा के तले
भविष्या के अनगिनत स्वप्न थे पले
समय के साथ स्पर्धा थी जैसे
दौड़ रहे थे निम्मो के दिन रात वैसे
कि एक दिन गाँव से पत्र वो आ गया
रोशन जीवन में अंधकार-सा छा गया
"चली गयी छुड़ाकर वात्सल्य का आँचल,
माँ क्या रुक ना पाई तू मेरे लिए पल-भर?"
आँखें जैसे खोई हों टूटे सपनों की समीक्षा में
निगल ना जाए रात इन्हें भोर की प्रतीक्षा में!
टूट कर ढह गया साहस का हर स्तंभ
अब कैसी अभिलाषा! कैसा कोई स्वप्न!
कोई नही जानता था उस हृदय का क्लेश
जब लौटे वो कदम वापस अपने देश
घर की चौखट पर था सन्नाटे का शोर
और मुख पर अंतिम दर्शन से वंचित नैनों का बिछोह
दीवारों की तस्वीरों में बीते हुए सुख का दुख
शब्दों से रहित था उस सुवाचिका का मुख
पर माता के प्रेम को स्वीकार ना थी हार
मेज़ पर रखा था एक अंतिम उपहार
उन परिचित हस्ताक्षरों मे लिखी पंक्तियों का चयन
दे गयीं थी वो एक नव निर्माण का वचन:
"जीवन में एक सितारा था,
माना वो बेहद प्यारा था,
वो टूट गया तो टूट गया,
अंबर के आनन को देखो,
कितने इसके तारे टूटे
कितने इसके प्यारे छूटे
पर बोलो टूटे तारों पर
कब अंबर शोक मनाता है"
(जो बीत गयी, सो बात गयी)

With all due regards to Harivanshrai Bachchan and the magic he created with his words!
बचपन का वो आश्वासन
शायद था अंधविश्वास
दोषी भी तो शायद
है अपनी ही आस


स्वार्थ लिप्त इस दुनिया मे 
भावनाओं का मोल नही 
गूंगापन मंज़ूर यहाँ है 
पर मन के सच्चे बोल नही


रह जाता है पंछी 
फड़फ़डा कर अपने परों को 
तोड़ने को आतुर वो 
लोहे कि उन छड़ों को

एक एक कर ढहता है 
धीरज का हर स्तम्भ
आहत मन का दंभ है
या है साँसों का हड़कंप


आंखें जैसे खोयी हों
टूटे सपनों की समीक्षा मे
निगल ना जाये रात इन्हें
भोर कि प्रतीक्षा मे

फूँक कर रखने हैं कदम

कहीं छूट ना जाये संयम 
और टूट ना जाएँ कहीँ
"सुसंस्कृत" समाज के
ये दृढतम नियम