Tuesday, September 9, 2014

आघात नहीं कह सकती इसको
यह जो पीड़ा है, आकस्मक नहीं है
असहनीय भी नहीं कहूँगी क्योंकि
जीवित हूँ इसे ह्रदय में लिए अब भी
एक शांत सा सागर है ये
लहरों का शोर तो है किन्तु
न हलचल, न तटस्थ होने का प्रयास
आकाश बन कर शान्ति, सर पर छा गयी है आज
अडिग अचल अछल है ये पीड़ा
हर भ्रम को, भंगिमा को भंग कर चुकी पीड़ा
मन की शिथिलता में शिलांकित पीड़ा
अर्थों, आशाओं से परे, स्वीकृत, परिचित पीड़ा
इसे अब अपना कहना अतिशयोक्ति तो नहीं

Sunday, August 17, 2014

कुछ किस्से कविताओं में
व्यक्त न हो पाएँगे
किसी और दिन की खातिर
मन की बोरियों में बँध जाएँगे
आज के लिए बस
ये प्रार्थना पर्याप्त हो
जब तक जीवन की लौ जले
शब्दों का साथ हो 

Saturday, August 16, 2014

वो कहते हैं रोम एक रात में नहीं बना 
फिर एक रात में
ध्वस्त कैसे हो जाती हैं
वर्षों, युगों की इमारतें
एक ठोकर में कैसे 
बिखर जाती हैं
एक एक कर संजोयी सीपियाँ
क़तरा क़तरा स्वप्न का भी
चकनाचूर होते देखा है
रात के कुछ लम्हों में
तुम भी तो चले गए थे
एक रात में ही
फिर कभी न लौटने को
कितना कुछ बदल जाता है
एक रात के विस्तार में
विनाश रचना से इतना सरल क्यों है?

Sunday, May 4, 2014

धीरे धीरे सुन्न से होते जा रहे हैं सब 
लफ्ज़, शब्द, नब्ज़ 
सन्नाटा जीतने को है जल्द ही 
मेरे मंन के निरंतर शोर से 
नज़र में आ रहा है अब 
गहरा शांत तम
बस छूटने को है दम