Sunday, August 17, 2014

कुछ किस्से कविताओं में
व्यक्त न हो पाएँगे
किसी और दिन की खातिर
मन की बोरियों में बँध जाएँगे
आज के लिए बस
ये प्रार्थना पर्याप्त हो
जब तक जीवन की लौ जले
शब्दों का साथ हो 

Saturday, August 16, 2014

वो कहते हैं रोम एक रात में नहीं बना 
फिर एक रात में
ध्वस्त कैसे हो जाती हैं
वर्षों, युगों की इमारतें
एक ठोकर में कैसे 
बिखर जाती हैं
एक एक कर संजोयी सीपियाँ
क़तरा क़तरा स्वप्न का भी
चकनाचूर होते देखा है
रात के कुछ लम्हों में
तुम भी तो चले गए थे
एक रात में ही
फिर कभी न लौटने को
कितना कुछ बदल जाता है
एक रात के विस्तार में
विनाश रचना से इतना सरल क्यों है?