Thursday, October 13, 2011

वो धूप जो सेंका करते थे हम 
उसका एक टुकड़ा पड़ा है कहीं 
मेरी संदूक में
चूड़ियों के ढेर के नीचे 

मेज़ पर पड़ी सिन्दूर की डिबिया के पास 
कहीं कागज़ के एक टुकड़े पर 
हमारे नाम लिखे हैं 
चाँदनी में देखना, चमकते हैं वो 

सीढ़ियों के नीचे आँगन में जहां 
मिर्ची सुखाते हैं ना
वहीं चारपाई के पाए में मैंने 
बाँध रखा है हमारी मन्नत का धागा 

चूल्हे के पास कोयले के ढेर में 
कुछ अकेली सिसकियाँ दफनाई हैं 
और पीछे बगीचे में गुलाब वाले गमले के नीचे 
हमारी हँसी की किलकारियाँ सजाई हैं 

मुट्ठी में भी छुपा रक्खा है 
मूँदे हुए ख़्वाबों का एक पुलिंदा 
श्मशान से लौटते वक़्त याद से, निकाल कर ले जाना घर
और डाल देना आँगन में तुलसी की छाँव में कहीं 

Monday, October 10, 2011

कागज़ की कश्ती

कागज़ की कश्ती सी जिंदगी
बारिशों में जन्मी
बारिशों में खो जानी है 
गली गली घूमकर फिर भी 
बारिशों में नहा रही देखो 

Saturday, October 8, 2011

कभी कभी मेरे दिल में

कभी कभी मेरे दिल में ख़याल आता है 
कि ये ज़मीन ये तारे ये झिलमिल बारात उनकी 
ये चाँद का गहना जो रात ने पहना है 
ये हवाओं की अठखेलियाँ जो लुभाती है दिल 
ये रातों को छतों पर गुज़ारे हुए पल 
ये सर्दियों की धूप में मखमल सी नींद 
ये चूल्हे से उठता हुआ सौंधा सा धुआँ
ये सरसों के सुनहरे खेतों का दामन 
ये दोपहरों की लुका छुपी में बीता बचपन 
ये मासूम बचपन के जैसी ओस की बूँदें 
ये खामोश मोहब्बत भरी दीवानी ग़ज़लें 
ये सुबह का उभरता हुआ नारंगी सूरज 
ये खिड़की पे बिखरते हुए धूप के टुकड़े
ये रेत में डूबे हुए पैरों के अंगूठे
ये तस्वीरों पर पड़े वक़्त के धब्बे 
ये समंदरों को चखना नज्मों में 
ये हाथों का मिलना अनजाने में 
ये सिहरन जो उठती है उनके आने से
ये तलाश बंजारे से सवाली मन की 

कभी कभी मेरे दिल में ख़याल आता है 
ये साँसों में घुलती हुई पल पल ज़िंदगी 
और इससे हुई मुहब्बत के हमारे किस्से 
क्या जी पायेंगे हमारे बाद भी...पल दो पल?

Thursday, October 6, 2011

दिल में आता है लिखूं

आज दिल में आता है लिखूं
तब तक जब तक सूख न जाएँ
स्याही या फिर आंसूं
या मिल न जाए जवाब
उस सवाल का जो दिल ने
खुद से पूछा है डर डर के
आज दिल में आता है लिखूं
जब तक खामोशियाँ
उतर न जाएँ कागज़ पर
हैरान से ख़्वाबों को जब तक
हो न जाए सच का यकीन
तब तक लिखूं जब तक
धुंआ न हो जाए रात
और एक रात के साथ साथ
धुंआ हो जाएँ उम्र भर के जज़्बात
दिल में आता है लिखूं
के जब तक रुक न जाए हाथ
जब तक थम न जाए ज़िंदगी
छूट न जाए सांस

कल, आज और कल


A very old write...a little flawed..a little immature...

चाँदनी थी धवल, शीतल थी वात 
शिथिल से उस क्षण में मन कर रहा था संवाद 
धूल मिट्टी से भरी पगडंडियाँ  अब नहीं हैं 
भीगे खस से ढंकी खिड़कियाँ अब नहीं हैं 
गाँव तो वही है, बस वो बचपन कहीं लुप्त है
उन्मुक्त ठहाकों में जो बीता, सुहाना कल कहीं लुप्त है

आज स्वप्न सारे मेरे सत्य बनकर हैं खड़े 
सफलता के आभूषण पर समृद्धि के हैं रत्न जड़े 
एक एक करके मैंने 'संभव' को परिभाषित किया 
नित्य बढ़ती हुई गति से ठहराव को पराजित किया 
सागर की गहराई को, अम्बर के विस्तार को 
सूरज के प्रकाश और मेघ की हुंकार को 
साध कर यंत्रों से भेद मैंने जाने हैं 
लाभ और विलास के मायने पहचाने हैं 
अकारण ही नहीं इतना दंभ है ये मेरा
त्याग और परिश्रम का स्तम्भ है ये मेरा 

पर क्या हिल रहा है ये स्तम्भ 
परिवर्त्तन की आंधी में?
क्या नीव पद गयी थी इसकी
बीते कल की समाधि में?
खुशियों के पीछे भागा था, सपनों की होड़ में 
क्या समय था मुझसे आगे, उस निरंतर दौड़ में?
आज भी क्यूँ ख़ुशी, दूर होती है प्रतीत
क्यूँ सुनहरा लगता है मुझको, वो अविकसित अतीत 
गाँव की सड़कों के संग बदल गए हैं वो विचार 
जो बाँधते से मन से मन को, संबंध वो निर्विकार 
चैन और विश्राम के पल हो गए हैं गौण क्यों 
विवेक के विचलित से स्वर हो रहे हैं मौन क्यों 
भौतिकता के रास्ते में, कल वो दिवस न आ जाए 
मानव की भावनाएं, यन्त्र -चालित हो जाएँ 
लाभ हानि की तुला में, नप न जाए सत्य भी 
उन्नति की मृग तृष्णा में, खो न जाएँ तथ्य भी 

एक भोर तो आयेगी इस रात्रि के भी बाद
जब सुन सकेगा मानव अपने मन का ये संवाद 
कल के पीछे भागता वो कुछ पल को ठहर जायेगा 
उस कुछ पलों के आज में जीवन का सार भर जायेगा 

Tuesday, October 4, 2011

इंतज़ार

आज सवेरे से ही अनमनी सी थी वो 
कभी खिड़की पर जाती 
कभी वापस आ कर 
मेज़ पर पड़ी किताब को 
एक बार और पोंछती थी पल्लू से 
कभी आईने के आर पार ढूंढती थी कुछ 
उस पार और इस पार के बीच 
जैसे अटक गया हो वजूद का एक टुकड़ा 
घड़ी की टिक टिक गूंजती है कमरे में 
पर काटें जैसे उलझ गए हैं आपस में 
दो पड़ोसियों के उलझे हुए कल और आज की तरह 
वक़्त बढ़ता ही नहीं है 
दिन ढलता ही नहीं है 
जब से सुना है कि आज की शाम 
सरहद पार से पहली गाडी आने वाली है 

Saturday, October 1, 2011

वो नज़्म

ज़माने पहले एक नज़्म ने
पंख पसारे थे
हिचकिचाते हुए
मेरी मेज़ पर रखे कागज़ के पन्ने से
सौंधी सी महकी थी
धुंआ बन के हलके से
छाई थी फिज़ाओं में
तब वक़्त कुछ और था
तुम होते थे तसव्वुर में तब
उसी रोज़ सुबह तुमने
आँगन में सूखते गेहूँ की चादर पर
उजली सी धूप में
कुछ गेहूँ उठा कर मेरी जुल्फों में भरे थे
और सुनहरे दानों में
हम दोनों
खिलखिलाते रहे थे देर तक
वो हँसी आज भी सहेज रखी है
उस नन्ही सी नज़्म ने
उस सुबह के सूरज को
आज भी तापती है वो
घेरे से बनाती है चारों तरफ उस याद के
हमारे हाथों की लकीरों से
उस नज़्म से , उस याद से
आज भी मोहब्बत है मुझे
तुमसे नहीं तो क्या