Friday, July 15, 2011

बचपन का वो आश्वासन
शायद था अंधविश्वास
दोषी भी तो शायद
है अपनी ही आस


स्वार्थ लिप्त इस दुनिया मे 
भावनाओं का मोल नही 
गूंगापन मंज़ूर यहाँ है 
पर मन के सच्चे बोल नही


रह जाता है पंछी 
फड़फ़डा कर अपने परों को 
तोड़ने को आतुर वो 
लोहे कि उन छड़ों को

एक एक कर ढहता है 
धीरज का हर स्तम्भ
आहत मन का दंभ है
या है साँसों का हड़कंप


आंखें जैसे खोयी हों
टूटे सपनों की समीक्षा मे
निगल ना जाये रात इन्हें
भोर कि प्रतीक्षा मे

फूँक कर रखने हैं कदम

कहीं छूट ना जाये संयम 
और टूट ना जाएँ कहीँ
"सुसंस्कृत" समाज के
ये दृढतम नियम

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