Tuesday, October 4, 2011

इंतज़ार

आज सवेरे से ही अनमनी सी थी वो 
कभी खिड़की पर जाती 
कभी वापस आ कर 
मेज़ पर पड़ी किताब को 
एक बार और पोंछती थी पल्लू से 
कभी आईने के आर पार ढूंढती थी कुछ 
उस पार और इस पार के बीच 
जैसे अटक गया हो वजूद का एक टुकड़ा 
घड़ी की टिक टिक गूंजती है कमरे में 
पर काटें जैसे उलझ गए हैं आपस में 
दो पड़ोसियों के उलझे हुए कल और आज की तरह 
वक़्त बढ़ता ही नहीं है 
दिन ढलता ही नहीं है 
जब से सुना है कि आज की शाम 
सरहद पार से पहली गाडी आने वाली है 

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