Saturday, September 23, 2023

लेखन और मैं

 

आज समंदर की लहरों में चलते चलते विचार आया कि जो कभी बहाव हुआ करता था, आज प्रयास बन गया है। जीवन बस बाहरी दबाव के बावजूद अंदरूनी दबाव को मानने की जंग है। इस खींच तान में अक्सर हारती रही हूँ। जब इन बातों की समझ आई तब सामाजिक कार्य से जुड़ गई। शायद जो कलम के माध्यम से करना निर्धारित था वहीं संस्था के नेतृत्व के माध्यम से करने लगी। गांधी ने कहा था कि बदलाव हमेशा स्वयं से शुरू होता है। शिक्षा में कार्य करते समय इस बात को बहुत व्यक्तिगत और गहन रूप से समझा। 


एक लेखिका और एक समाजसेविका कई रूपों में एक जैसी होती हैं। दोनों के कार्य में आंदोलन होता है। जब सहज रूप से लिखती थी तब कभी इसके बारे में नहीं सोचा लेकिन अब सोचती हूँ तो लगता है कि बिहार के उन छोटे शहरों के समाज में एक स्वतंत्र स्वभाव की किशोर लड़की का लेखन ही आंदोलन था। वह न सिर्फ दृश्य बने रहने से इनकार था बल्कि दर्शक बनकर टिप्पणी करने का और अपनी आवाज़ के लिए जगह बनाने का प्रयास था। लेखन और समाज सेवा में यह भी समानता है की दोनों कार्य अगर पूरी निष्ठा के साथ किए जाएँ तो फल से ज़्यादा प्रभावशाली प्रक्रिया हो जाती है। 


सामाजिक आंदोलन के मार्ग पर चलने का कोई पश्चत्ताप नहीं है पर लेखन से बनी दूरी चुभती है। लगता है जैसे एक दैविक उत्तरदायित्व था जिसके साथ काफ़ी लापरवाही कर दी, जैसे वह रचनात्मक शक्ति प्रतीक्षा करते करते उठ कर विदा हो गई। उसी को बहला फुसला कर लौट कर लाने का प्रयत्न कर रही हूँ। हम सफल लेखकों की जीवन यात्रा अक्सर सुनते हैं। उनमें एक समानता होती है – उन्हें अपने इस उत्तरदायित्व का ज्ञान कम उम्र से होता है और या तो जीवन का बहाव उन्हें परिवेश के सहयोग से रचनात्मकता की ओर ले जाता है, या फिर उनमें उसके लिए लड़ने की दूरदर्शिता और साहस होता है।


ऐसा तो नहीं होगा कि कम साहस वाले और पथभ्रमित लोग नहीं होंगे। वह भी होंगे और शायद मेरी इस टेढ़ी मेढी यात्रा से सहानुभूति रखेंगे। इस आवाज़ का कुछ तो महत्त्व होगा।




Sunday, August 20, 2023

शब्द एक दिन तुम लौट आना

शब्द एक दिन तुम लौट आना

अभी नाराज़गी तुम्हारी जायज़ है

मैंने ऐसे मुँह मोड़ा हमारे रिश्ते से

जैसे तुम मेरे अतिप्रिय नहीं

जैसे जीवन की हर मझधार में

नौका बनकर तुमने ना सम्भाला हो मुझे

जैसे बचपन की ऊँची चौखट

तुम्हारे कंधे पर सवार लड़खड़ाते हुए ना लाँघी हो

जैसे तुम बिन संभव था उन कच्चे मासूम पत्रों का व्यापार

जैसे तुम बिन बुन पाती कभी अपना ये टेढ़ा मेढ़ा सच्चा संसार

जैसे मेरे अन्तर्मन की भाषा का आकार नहीं हो तुम

जैसे मेरी अदम्य आशा का आधार नहीं हो तुम



फिर भी एक दिन तुम लौट आना

हमारे भूले बिसरे रिश्ते की खातिर

भूलने की मेरी फ़ितरत मैं कम कर लूँगी

तुम भी अपनी आदत की तरह खुल कर बरस जाना

और मैं ज़रिया बन एक बार फिर कलम धर लूँगी 

Friday, May 8, 2015

कहानी

वो कहती है कहानी सुनाओ माँ
और देखती है आधी मूंदी पलकों से मेरे चेहरे को
मिथ्या की गलियों से चलकर स्वप्नों में अवतरित होने को आतुर
मैं स्मरण करती हूँ किस्से, जो मैंने सुने थे
एक राजा, उसकी तीन रानियाँ
फिर याद करती हूँ कि उस कहानी में
रानियों ने पुत्र प्राप्ति के यज्ञ किये थे
एक और कहानी जिसमें
रूप खो कर एक परी
खुशियाँ खो बैठी थी
कई और कहानियाँ जो एक सुन्दर राजकुमारी की
राजकुमार को पाने की लालसा से आरम्भ होकर
उनके मिलन पर अंत हो जाती हैं
'माँ, कहानी सुनाओ ना'
उसका गीली मिट्टी सा मन, ढाँचो में उतरने के अनभिप्रेत प्रयास में
मैं सुनाती हूँ कहानी एक परी की जिसने
परिश्रम किया, संघर्ष किया, बाधाएँ लांघीं
और अंत में एक कठिन पहाड़ की चोटी साधी
'पर परियों के तो पँख होते हैं ना '
हाँ, पर उन्हें पाने के लिए चोटियाँ चढ़नी पड़ती हैं
आँखें मूँद कर वो सोचती है उस चोटी को,
उस दृष्य को, उस पँखों के जोड़े को
और फैल जाती है उस मुख पर
एक तृप्त मुस्कान, जो कहती है

उसकी परिभाषाएँ हमारी परिभाषाओं से सरल होंगी

Tuesday, September 9, 2014

आघात नहीं कह सकती इसको
यह जो पीड़ा है, आकस्मक नहीं है
असहनीय भी नहीं कहूँगी क्योंकि
जीवित हूँ इसे ह्रदय में लिए अब भी
एक शांत सा सागर है ये
लहरों का शोर तो है किन्तु
न हलचल, न तटस्थ होने का प्रयास
आकाश बन कर शान्ति, सर पर छा गयी है आज
अडिग अचल अछल है ये पीड़ा
हर भ्रम को, भंगिमा को भंग कर चुकी पीड़ा
मन की शिथिलता में शिलांकित पीड़ा
अर्थों, आशाओं से परे, स्वीकृत, परिचित पीड़ा
इसे अब अपना कहना अतिशयोक्ति तो नहीं

Sunday, August 17, 2014

कुछ किस्से कविताओं में
व्यक्त न हो पाएँगे
किसी और दिन की खातिर
मन की बोरियों में बँध जाएँगे
आज के लिए बस
ये प्रार्थना पर्याप्त हो
जब तक जीवन की लौ जले
शब्दों का साथ हो 

Saturday, August 16, 2014

वो कहते हैं रोम एक रात में नहीं बना 
फिर एक रात में
ध्वस्त कैसे हो जाती हैं
वर्षों, युगों की इमारतें
एक ठोकर में कैसे 
बिखर जाती हैं
एक एक कर संजोयी सीपियाँ
क़तरा क़तरा स्वप्न का भी
चकनाचूर होते देखा है
रात के कुछ लम्हों में
तुम भी तो चले गए थे
एक रात में ही
फिर कभी न लौटने को
कितना कुछ बदल जाता है
एक रात के विस्तार में
विनाश रचना से इतना सरल क्यों है?

Sunday, May 4, 2014

धीरे धीरे सुन्न से होते जा रहे हैं सब 
लफ्ज़, शब्द, नब्ज़ 
सन्नाटा जीतने को है जल्द ही 
मेरे मंन के निरंतर शोर से 
नज़र में आ रहा है अब 
गहरा शांत तम
बस छूटने को है दम