Sunday, August 5, 2012

आँचल का छोर

मेरी नज्मों में छुपे बैठे हो कब से 
रात के साये में लिपटे हुए से 
छुपा छुपी के इस खेल में तलाशती रहती हूँ मैं 
कभी तुम्हे, कभी अपने आँचल के छोर को 

वहीँ कहीं शायद किसी गाँठ में 
हमने चावल के दानों के साथ 
कसमें बाँधी थीं कभी



Friday, May 25, 2012

इक दिन के लिए आओ
ज़िन्दगी बदल के देखें 
तुम आग के दरिये तैरो 
हम ठंडी आहें सेंकें 

ऐसी रात में मिल

चाँदनी जब छन के 
आँगन में उतरे 
और तारों की बारिश में 
भींगे हों दिल 

सौंधी सी हवा में
आज़ाद हों खुशबुएँ
और नींदों की गलियों में
सपने हों शामिल

ऐसी मद्धम सी रात में
जब सपने और हकीकत
का फर्क धुंधला जाए
ऐसी रात में, चुपचाप कभी
ख़याल बन के मिलना