Friday, July 15, 2011

संध्या का दीपक

दादीमाँ,

जब शाम होती है मेरे शहर में 

गाड़ियों के शोर में घिरी मैं
क्षितिज पर डूबते सूरज में
तुम्हारी सूरत ढूंढ लेती हूँ
जब संध्या का दीपक लेकर तुम 
हर कमरे में घूमती थी 
और मुझे देख कर 
गाते हुए मुस्कुराती थी 
"सखी हे ...साँझ भयो नहीं आये मुरारी...
कहाँ अटके...गिरधारी..."
यशोदा का व्याकुल चित्त 
तुम्हारे हर पल विचलित मन जैसा 

यहाँ पर मेरा माँ
कोई इंतज़ार नहीं करता 

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