बचपन का वो आश्वासन
शायद था अंधविश्वास
दोषी भी तो शायद
है अपनी ही आस
स्वार्थ लिप्त इस दुनिया मे
भावनाओं का मोल नही
गूंगापन मंज़ूर यहाँ है
पर मन के सच्चे बोल नही
रह जाता है पंछी
फड़फ़डा कर अपने परों को
तोड़ने को आतुर वो
लोहे कि उन छड़ों को
एक एक कर ढहता है
धीरज का हर स्तम्भ
आहत मन का दंभ है
या है साँसों का हड़कंप
आंखें जैसे खोयी हों
टूटे सपनों की समीक्षा मे
निगल ना जाये रात इन्हें
भोर कि प्रतीक्षा मे
फूँक कर रखने हैं कदम
कहीं छूट ना जाये संयम
और टूट ना जाएँ कहीँ
"सुसंस्कृत" समाज के
ये दृढतम नियम
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