Thursday, November 24, 2011

तलाश


ख़ुदा ढूँढने निकले थे
खुद से मुलाक़ात हो गई
तलाश वहीं पर कुछ
मुक़म्मल सी लगने लगी
मोमबत्ती की रोशनी
जब दिल के कोनों पर पड़ी
एक सरहद सी थी जो दो परछाइओं के बीच
पिघलने सी लगी
मेरे उजालों ने मेरे अंधेरों को
अपनाना सीख लिया 

1 comment:

  1. your poem reminds me the gazal of jagnit singh;
    "Ghar se nikle the hausla kar ke;
    laut aaye khuda khuda kar ke;"

    nice poems

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